Friday, August 27, 2010

अशीर्षक..... ...

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दो जागरूक इंसान,
एक मानव
एक मानवी,
गहन प्रेम,
होता है महसूस
दो नहीं अब
हो गए हैं एक,
होते हैं वे
दो स्तम्भ
दो ध्रुव,
एवं
होता है कुछ
बहता हुआ
मध्य दोनों के...
यह प्रवाह
बनता है निमित
आनन्द अनुभूति का,
देता है यह प्रेम
आनन्दोपहार
क्योंकि
उस पल के लिए
गिरा चुके होते हैं दोनों
अपने अपने अहम् को...
'दूसरा' हो जाता है
तिरोहित
पल भर को,
होता है घटित
आनन्द
एक उत्सव,
और
यही क्षण
बदल सकता है,
जीवन,
बना कर ध्यानमय
सब कुछ,
होता है घटित
एकत्व
मात्र नहीं किसी
एक के संग,
मात्र नहीं किसी
एक 'अन्य' के संग,
गिर जाता है अहम्,
होता है प्रतीत
हर कण अस्तित्व का
'निज' सा,
और
बन जाता है
सब कुछ बस
'स्वयं'......
शब्दातीत
ज्ञानातीत
कर्मातीत......
कोई कहता है इसे
भक्ति
कोई
प्रेम
कोई
कैवल्य.....
किन्तु
एक स्थिति
अपरिभाषित
''शून्य" की,
होते हुए - ना होने क़ी,
ना होते हुए - होने क़ी..

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