#######
निर्लिप्त हुए हो तुम योगी !
या हुआ पलायन है तुम से
आनन्द से अति दूर हुए
रहते हो हर पल गुम गुम से....
अभिलाषाओं का दमन किया
तू ने सदा वृथा प्रवचन दिया
वास्तविकताओं से दूर रहा
आकाँक्षाओं का शमन किया.
कुंठा के बीजों से क्या तुम
उद्यान फलित कर पाओगे
एकांगी सोचों से क्या तुम
अभिष्ठ प्राप्त कर पाओगे ?
साक्षी भाव अपना कर तू
जान स्वयं को सकता था
संसार में ही रह कर भी तू
भवसागर से तर सकता था.
हेय श्रेय के चक्कर में तू
ना जाने क्योंकर भटक गया
चुनने को अपना कर तू
आधे में यूँ ही अटक गया.
खोल चक्षु तू देख जरा
सुन्दर है कितने नभ व् धरा
अस्तित्व समाया कण कण में
प्रभु बसता है मन मन में.
उतार आवरण को जी ले
प्रेम की मदिरा को पी ले
भुला सत्य मिथ्या के भ्रम
फटी चदरिया को सी ले.
मंगल प्रभात बुलाता है
सूरज पलना झुलाता है
चाँद तुम्हारा साथी है
प्रीतम से मिलवाता है.
कर समग्र स्वीकार जियो
आनन्द अंगीकार जियो
जीवन लबा लब है भरा हुआ
अमृतपान करो और खूब जियो
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment