Thursday, August 12, 2010

मंथर...(आशु कविता)

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कोई
उभरा था
क्षितिज से,
वर्ण था
ताम्र सा,
खनक थी
पायल में,
स्वर था
मंथर सा...

होठों पे
बोल
मधुरिम,
संगीत था
पवन में,
छन्द थे
चपल से,
आनन्द था
गगन में...

मुग्ध था
अन्तरंग,
व्याप्त
स्पंदन
पिपासु तन में ,
चक्षु खुले थे
मेरे,
पर था मैं
कोई
स्वप्न में.....

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