Thursday, August 12, 2010

रीछ .....(आशु रचना)


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मदारी बना
समाज
नचाता है
व्यक्ति को
बना कर
रीछ...
बजा कर
थोथे
रस्मों
रिवाजों और
नियमों की
डुगडुगी.....
बनाये गए थे जो
किसी समय
विशेष पर
हेतु सुचारू
व्यवस्था.....
नहीं बदला गया
जिन्हें
बदली जब जब
अवस्था,
लकीर के
फ़कीर बन
थोपते हैं
अंध रूढ़ियाँ,
घुटन और
विद्रोह को
देते हैं न्योता
कस कर
झूठी बेड़ियाँ...

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